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सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर बड़ी पहल, सम्मान से मरने का अधिकार, कर्नाटक बना पहला राज्य

क्या आप जानते हैं कि अब गंभीर रूप से बीमार मरीजों को ‘सम्मान से मरने’ का अधिकार मिलेगा? कर्नाटक बना पहला राज्य जिसने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लागू किया! जानिए कैसे यह नया नियम आपकी जिंदगी को बदल सकता है

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सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर बड़ी पहल, सम्मान से मरने का अधिकार, कर्नाटक बना पहला राज्य
सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर बड़ी पहल, सम्मान से मरने का अधिकार, कर्नाटक बना पहला राज्य

कर्नाटक ऐसा पहला राज्य बनने जा रहा है जो सम्मान से मरने (Right to Die with Dignity) के सुप्रीम कोर्ट के आदेश को लागू करेगा। राज्य सरकार ने ऐलान किया है कि गंभीर रूप से बीमार (Terminally Ill) मरीजों को यह अधिकार दिया जाएगा। यह निर्णय मरीजों की इच्छाओं और उनकी पीड़ा को ध्यान में रखते हुए लिया गया है।

कर्नाटक सरकार का यह निर्णय भारत में मेडिकल एथिक्स और मरीजों के अधिकारों के क्षेत्र में एक बड़ा कदम है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार, यह निर्णय मरीजों की इच्छाओं और उनके जीवन की गुणवत्ता को ध्यान में रखते हुए लिया गया है। अब देखना होगा कि यह कानून कैसे लागू होता है और समाज पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है।

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सुप्रीम कोर्ट का आदेश और उसका क्रियान्वयन

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 2018 में एक ऐतिहासिक फैसले में सम्मानपूर्वक मरने के अधिकार को मान्यता दी थी। इसके तहत, गंभीर रूप से बीमार व्यक्तियों को जीवन-रक्षक उपकरणों को हटवाने या उपचार न जारी रखने की अनुमति दी गई थी, जिसे पैसिव यूथेनेशिया (Passive Euthanasia) कहा जाता है, कर्नाटक सरकार ने अब इस आदेश को प्रभावी रूप से लागू करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। मुख्यमंत्री के निर्देश पर स्वास्थ्य विभाग इस संबंध में एक विस्तृत गाइडलाइन तैयार कर रहा है। राज्य में मरीजों को यह अधिकार देने के लिए विशेष मेडिकल पैनल और कानूनी प्रक्रियाओं को विकसित किया जा रहा है।

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कर्नाटक सरकार की पहल क्यों महत्वपूर्ण है?

कर्नाटक सरकार की यह पहल कई दृष्टिकोणों से महत्वपूर्ण है:

  1. मानवाधिकारों की रक्षा – सम्मान से मरने का अधिकार व्यक्ति की स्वतंत्रता और गरिमा को सुनिश्चित करता है।
  2. अत्यधिक पीड़ा से राहत – गंभीर रूप से बीमार मरीजों को बेवजह दर्द और कष्ट से बचाया जा सकेगा।
  3. स्वास्थ्य संसाधनों का उचित उपयोग – यह निर्णय उन मामलों में मदद करेगा जहां जीवनरक्षक उपचार की संभावना न्यूनतम हो।
  4. कानूनी प्रक्रिया को मजबूती – यह पहल सुप्रीम कोर्ट के फैसले को व्यवहारिक रूप से लागू करने का उदाहरण बनेगी।

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सम्मानपूर्वक मृत्यु का अधिकार और भारत में इसकी स्थिति

भारत में इस विषय पर चर्चा 2005 में उस समय शुरू हुई जब मुंबई की नर्स अरुणा शानबाग केस ने देश में यूथेनेशिया (Euthanasia) को लेकर बहस छेड़ दी। 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने पैसिव यूथेनेशिया को सीमित परिस्थितियों में मान्यता दी और 2018 में इसे कानूनी रूप से स्वीकार कर लिया, कई देशों में यह अधिकार पहले से मौजूद है। नीदरलैंड, बेल्जियम और स्विट्जरलैंड जैसे देशों में एक्टिव यूथेनेशिया (Active Euthanasia) भी कानूनी रूप से मान्य है, जबकि भारत में केवल पैसिव यूथेनेशिया को अनुमति दी गई है।

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मरीजों और परिवारों की भूमिका

सम्मान से मरने के अधिकार के तहत, मरीज या उनके परिवार यह निर्णय ले सकते हैं कि जब बीमारी लाइलाज हो जाए और जीवन-रक्षक उपकरणों की आवश्यकता हो, तो उन्हें हटा दिया जाए। कर्नाटक सरकार इस प्रक्रिया को कानूनी रूप से मान्य बनाने के लिए मेडिकल पैनल का गठन करेगी जो यह तय करेगा कि मरीज इस अधिकार का उपयोग कर सकते हैं या नहीं, इसके लिए मरीज की ओर से एक ‘लिविंग विल’ (Living Will) यानी पूर्वनिर्धारित इच्छा पत्र भी मान्य होगा। इस दस्तावेज़ के तहत मरीज पहले से ही यह घोषणा कर सकता है कि वह गंभीर बीमारी की स्थिति में कृत्रिम जीवनरक्षक उपकरणों पर निर्भर नहीं रहना चाहता।

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नैतिक और सामाजिक पहलू

सम्मानपूर्वक मृत्यु का अधिकार देने के फैसले को लेकर नैतिक और सामाजिक दृष्टिकोण से भी काफी चर्चा हो रही है। कुछ लोगों का मानना है कि यह एक प्रगतिशील कदम है जो मरीजों को अनावश्यक दर्द से बचाएगा। वहीं, कुछ लोगों को आशंका है कि इस अधिकार का दुरुपयोग भी हो सकता है, कर्नाटक सरकार ने यह स्पष्ट किया है कि हर मामले में चिकित्सा विशेषज्ञों, कानूनी विशेषज्ञों और परिवार के सदस्यों की राय ली जाएगी। इसके अलावा, सरकार यह सुनिश्चित करेगी कि इस अधिकार का इस्तेमाल केवल उन्हीं मामलों में हो जहां यह वास्तव में आवश्यक हो।

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अन्य राज्यों के लिए एक उदाहरण

कर्नाटक का यह कदम अन्य राज्यों के लिए एक मिसाल बन सकता है। यदि यह नीति सफल रहती है, तो अन्य राज्य भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लागू करने के लिए प्रेरित हो सकते हैं।

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